जब तेरे दर पर आ बैठे , कोई और ठीकाना क्यों समझे |
जो तुझको अपना बना बैठे , उनको दीवाना क्यों समझे |
जब तेरे हुए तेरे रहे , ये जादू नहीं करिश्मा भी नहीं |
यह तेरी ही बस रहमत है , कोई और बहाना क्यों समझे |
जो तुझको अपना बना बैठे , उनको दीवाना क्यों समझे |
साकी की नजरो से सबको , वहदत की मय मिल जाती है |
ए जाहिद यह तो काबा है , इसको मयखाना क्यों समझे |
जो तुझको अपना बना बैठे , उनको दीवाना क्यों समझे |
देखी जो जोत तो मुह चूमा , और खुद को जोत बना बैठे |
समां की खबर जो रखता है , उसको परवाना क्यों समझे |
जो तुझको अपना बना बैठे , उनको दीवाना क्यों समझे |
हर जर्रा तेरा है सद्गुरु , तुझको क्या भेट करू दाता |
जब दात तेरे युज्को ही दे , तब ये नजराना क्यों समझे |
जो तुझको अपना बना बैठे , उनको दीवाना क्यों समझे |
निर्मल जोशी जी ने यह कबिता लिखा है |
Very Nice Poem.
Thanks.